Sharad Kokas's famous poem
वह कहता था,
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।
खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था *‘कहो’*,
एक में लिखा था *‘सुनो’*।
अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था *‘सुनो’*।
वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।
राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
*वह मीरा हो गई।*
ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
*वह अहिल्या हो गई।*
प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
*वह सीता हो गई।*
चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
*वह सती हो गई।*
घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची,*
जिस पर लिखा था, *‘कहो'*।
My reply to him
अब खेल वही है, लेकिन उसके, मायने गए है बदल |
क्योंकि अब वो पढ़ना लिखना सीख गई अविरल ||
पहले उसके साथ होती थी एक निर्लज बईमानी |
मीरा, अहिल्या और सती, पर्ची का 'कहो' पढ़ना न जानी ||
अब जब इसकी पर्ची पर आता है 'कहो' ऐ नारी |
उसकी सिंह दहाड़ से कंपा जाती है भू सारी ||
जो काली का क्रोध भी है और महिसासुर का वध है ।
वो मलाला का साहस और विजयलक्ष्मी का नट है ||
एक दिन नारी ही चलाएगी इस भू की कमान |
क्योंकि उसके आंचल से ही निकले सब, मूसा हो या राम ।।
कह गए कवि अदिश सुनो वो दिन जब भी आएगा ।
देख लेना तुम ये विचलित जग तभी शांति पाएगी।।in
वह कहता था,
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।
खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था *‘कहो’*,
एक में लिखा था *‘सुनो’*।
अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था *‘सुनो’*।
वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।
राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
*वह मीरा हो गई।*
ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
*वह अहिल्या हो गई।*
प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
*वह सीता हो गई।*
चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
*वह सती हो गई।*
घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची,*
जिस पर लिखा था, *‘कहो'*।
My reply to him
अब खेल वही है, लेकिन उसके, मायने गए है बदल |
क्योंकि अब वो पढ़ना लिखना सीख गई अविरल ||
पहले उसके साथ होती थी एक निर्लज बईमानी |
मीरा, अहिल्या और सती, पर्ची का 'कहो' पढ़ना न जानी ||
अब जब इसकी पर्ची पर आता है 'कहो' ऐ नारी |
उसकी सिंह दहाड़ से कंपा जाती है भू सारी ||
जो काली का क्रोध भी है और महिसासुर का वध है ।
वो मलाला का साहस और विजयलक्ष्मी का नट है ||
एक दिन नारी ही चलाएगी इस भू की कमान |
क्योंकि उसके आंचल से ही निकले सब, मूसा हो या राम ।।
कह गए कवि अदिश सुनो वो दिन जब भी आएगा ।
देख लेना तुम ये विचलित जग तभी शांति पाएगी।।in
कविता अमृता प्रीतम की नहीं है, शरद कोकस की है !
ReplyDeleteआपकी कविता भी बहुत अच्छी है । और मेरी भी । अमृता प्रीतम जी की यह कविता नही है
ReplyDeleteआदरणीय यह कविता अमृता प्रीतम की नहीं है बल्कि यह शरद कोकास की है कृपया भूल सुधार कर पुनः यह वीडियो पोस्ट करें किसी भी तरह की शंका होने पर मुझसे बात करें मेरा फोन नंबर है 8871665060
ReplyDeleteCorrected
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