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Saturday, August 5, 2017

Hindi poem - A reply to Sharad Kokas jee

Sharad Kokas's famous poem

वह कहता था,
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था *‘कहो’*,
एक में लिखा था *‘सुनो’*।

अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था *‘सुनो’*।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
*वह मीरा हो गई।*

ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
*वह अहिल्या हो गई।*

प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
*वह सीता हो गई।*

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
*वह सती हो गई।*

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची,*
जिस पर लिखा था, *‘कहो'*।



My reply to him

अब खेल वही है, लेकिन उसके, मायने गए है बदल |
क्योंकि अब वो पढ़ना लिखना सीख गई अविरल ||

पहले उसके साथ होती थी एक निर्लज   बईमानी |
मीरा, अहिल्या और सती, पर्ची का 'कहो' पढ़ना न जानी ||


अब जब इसकी पर्ची पर आता है 'कहो' ऐ नारी |
उसकी सिंह दहाड़ से कंपा जाती है भू सारी ||

जो काली का क्रोध भी है और महिसासुर का वध है ।
वो मलाला का साहस और विजयलक्ष्मी का नट है ||

एक दिन नारी ही चलाएगी इस भू की कमान  |
क्योंकि उसके आंचल से ही निकले सब, मूसा हो या राम ।।

कह गए कवि अदिश सुनो वो दिन जब भी आएगा ।
देख लेना तुम ये विचलित जग तभी शांति पाएगी।।in